Pushpa 2 Controversy
बीते कुछ सालों में फिल्म जगत में यह डिबेट चली आ रही है कि किसी फिल्म का प्रभाव लोगों के निजी जीवन पर पड़ता है या नहीं। और 2019 में जब Kabir Singh आई उसके बाद तो इस डिबेट ने तो जैसे आग ही पकड़ ली, फिल्म जगत के ही लोग चाहे वह actors हों directors हों या writers हों वह सब दो हिस्सों में बट गए अपने ही विचारों में, कोई कहता है की फिल्मों का लोगों पर बहुत ज्यादा प्रभाव पड़ता है तो कोई कहता है कि ना के बराबर पड़ा प्रभाव पड़ता है।
अब जैसे Pushpa 2 पर कुछ लोगों के elegations है कि Pushpa 2 एक क्रिमिनल को बहुत ज्यादा ग्लोरिफाई कर रही है, क्योंकि पुष्पराज का जो कैरेक्टर है वह चंदन की लड़कियों का तस्कर है, एक चोर है, देश की संपति चुराने वाला एक देशद्रोही की तरह है, एक हत्यारा भी है, मतलब सर से पांव तक वह एक क्रिमिनल है लेकिन फिल्म में ऐसा दिखाया गया है कि वह कितना अच्छा है, लड़कियों का सम्मान करता है, पूजा पाठ करता है, मां काली का भक्त है, उसके वजह से कितने लोग खाना खा रहे हैं, कितने लोगों का जीवन अच्छा किया है उसने ।
अब मान लीजिए कि आप 1000 गरीब लोगों को लेकर एक गांव बसाते हैं और उनको अच्छा जीवन देने के लिए एक साल में उनके ऊपर 20 से 30 करोड़ खर्च करते हैं अपनी जेब से, लेकिन दूसरी तरफ आप एक साल में चंदन की लड़कियों की तस्करी करके 200 से 300 करोड़ बना रहे हैं और इस प्रक्रिया में आप हत्याएं भी कर रहे हैं, तो क्या आपको एक Hero जैसा दिखाया जाना चाहिए ?
अब इसी बात पर बहस चल रही है, जो लोग फिल्म को सपोर्ट कर रहे हैं वह कहते हैं कि Pushpa 2 एक कैरेक्टर ड्रिवन फिल्म है और करैक्टर ड्रिवन फिल्म ऐसी ही होती हैं, इन्हें सिर्फ इंटरटेनमेंट के लिए देखा जाना चाहिए और फिल्म को judge नहीं करना चाहिए, और इसका विरोध करने वाले लोग सीधे Pushpa 2 के निर्माताओं की नैतिकता को ही टारगेट कर रहे हैं, वह कह रहे हैं कि उनके दिमाग में यह सब क्या चलते रहता है कि उन्हें क्रिमिनल का प्यार मोहब्बत उसका स्वैग उसका परिवार दिखता है लेकिन उसका crime नहीं दिखता ।
लेकिन विरोध करने वाले लोग एक लॉजिक लेकर आते हैं कि इन फिल्मों से जवान लोगों में, 18-20 साल के लोगों में बुरा प्रभाव पड़ता है, उनकी नैतिकता डगमगाती है उन्हें स्मगलिंग, चोरी और मर्डर जैसी चीजें बहुत गलत लगने के बजाय साधारण लगने लगती है, और फिर जब वह अपने जीवन में बुरी परिस्थितियों से गुजर रहे होते हैं तो वह आसानी से गलत रास्ता अपना लेते हैं क्योंकि उनकी नैतिकता जो है वह डगमगा चुकी होती है, वह ऐसे कामों को ज्यादा गलत नहीं मानते ।
- अब ऐसी फिल्मों के बनने पर Naseeruddin Shah कहते हैं कि मर्दों की insecurity बढ़ रही है इसलिए वह ऐसी फिल्में बना रहे हैं।
- Vijay Devarkonda का मानना है कि अच्छी फिल्में बनाकर लोगों को सुधारा नहीं जा सकता।
- Manoj Bajpayee का कहना था कि कबीर सिंह का किरदार जो है वह हमारे समाज का एक हिस्सा है, अगर आपको वह नहीं पसंद है तो आप फिल्म मत देखिए।
- Deepika Padukone कहती हैं की इस देश में फिल्मों और क्रिकेट का प्रभाव लोगों पर सबसे ज्यादा पड़ता है तो Social Responsibility रखनी चाहिए।
अब हमारा मानना यह है की फिल्मों से आप पर imaginary Influence पड़ता है जो कि ज्यादा लंबे समय तक नहीं रहता।
जैसे मैं जब भी Anil Kapoor सर की नायक फिल्म देखता हूं तो हर बार में कुछ घंटे के लिए अपने आप को CM बनकर बहुत अच्छे फैसले लेते हुए imagine करता हूं, पूरे राज्य का नक्शा ही बदल देता हूं मैं उन दो-तीन घंटे के imagination में।
लेकिन मैंने उस फिल्म से प्रभावित होकर कभी assembly election में खड़ा होने का नहीं सोचा और ना ही किसी पार्षद के चुनाव में, मेरे मन में उस फिल्म का प्रभाव सिर्फ उसे देखने के बाद कुछ घंटे के लिए रहता है।
अब हमारे हिसाब से देश में बनने वाली 90 से 95% फिल्मों का प्रभाव ऐसा ही रहता है जो कुछ समय के लिए होता है, लेकिन कुछ फिल्में ऐसी भी हैं जिनका प्रभाव बहुत ज्यादा पड़ा है, ऐसी फिल्मों के उदाहरण हैं Sanjay Dutt की Vastav और Khalnayak
90 के दशक में जो बिगड़े हुए भटके हुए 18-20 साल के जो नवयुवक थे वह ऐसी फिल्मों को अपना inspiration मानते थे वह उन फिल्मों के कैरेक्टर्स की तरह बनना चाहते थे उनकी तरह दिखना चाहते थे।
लेकिन एक बहुत ज्यादा प्रभावशाली फिल्म आई थी जिसका नाम था "3 Idiots" लेकिन क्या वह सच में कुछ इंपैक्टफुल बदलाव ला पाया समाज में ? ऐसा नजर तो नहीं आता है, students की सारी समस्याएं अभी भी उतनी ही है।
OMG 1 देख के क्या लोगों ने मस्जिदों में चादर, चर्च में कैंडल्स और मंदिरों में दूध चढ़ाना छोड़ दिया? जी नहीं ऐसा नहीं हुआ।
क्या Arjun Reddy या Kabir Singh देखकर लड़के अपनी गर्लफ्रेंड को थप्पड़ मारने लग गए? या कबीर सिंह के आने से पहले किसी मर्द ने किसी औरत पर कभी हाथ ही नहीं उठाया था ?
तो हम कहना यह चाहते हैं कि हजारों सालों से इंसान जो religion follow करते आ रहे हैं, जिसके लिए वह आज पूरी दुनिया में सड़कों पर आ जाते हैं, उनकी किताबें उन्हें हजारों सालों से प्रभावित नहीं कर पाई, crime करने से रोक नहीं पाई, बल्कि उन्हीं के नाम पर crime होने लग गए तो यकीन मानिए फिल्मों का लोगों के जीवन में ज्यादा कुछ प्रभाव नहीं पड़ने वाला।
तो फिल्मों पर हमें Social Responsibility का इतना ज्यादा भार डालना नहीं चाहिए, इतना ज्यादा भार फिल्मों पर जब हम डाल देते हैं तो क्रिएटिव लिबर्टी खत्म हो जाती है।
और अगर ऐसा हुआ तो कोई भी लेखक दिल से कहानी नहीं लिख पाएगातो, हमें लोगों को उनकी कहानी बताने देना चाहिए, उनका नजरिया जाहिर करने देना चाहिए तभी पारदर्शिता बनी रहेगी।
और आपके लिए अच्छा यह रहेगा कि आप फिल्मों को इंजॉय करिए और अपने जीवन की सभी प्रकार की परिस्थितियों से गुजरते हुए अपनी morality को अपनी नैतिकता को एक आकर दीजिए, जो किसी भी व्यक्ति के विचारों से आसानी से प्रभावित ना हो।
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